“कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” आनंद बख्सी साहब ने यह कितना सुन्दर गाना लिखा और किशोर कुमार ने उसे उतना ही सुन्दर गाया. इस गीत की पूरी पृष्ठभूमि को अगर समझा जाए, सार निकाला जाए तो यही निकलता है कि, “जो तुम्हें सही लगे वही करो”, “अपने मन की करो”. तुम कुछ भी करो लोग उसमें ‘गॉसिप’ ढूँढ ही लेंगे.
इस गीत के अलावा भी एक कहानी काफ़ी प्रचलित है. जिसमें बताया गया है कि एक गधे के साथ पिता पुत्र जा रहे थे. चार गाँव से गुज़रे और चारों गाँव में अलग-अलग मत, अलग-अलग बातें उन्हें अपनी परिस्थिति पर सुनने मिलीं.
लेकिन क्या इतना आसान है पीयर प्रेशर से बचकर अपने मन की कर लेना? आज जहाँ देखो वहाँ, हर कोई भी एक दवाब में जी रहा है. अच्छा दिखने का, अच्छा पहनने का, अच्छा खाने का, अंग्रेज़ी बोलने का, मोटी तनख्वा वाली नौकरी का. बच्चा पैदा होता नहीं कि उसकी तुलना शुरू हो जाती है. आस-पास के बच्चों से, स्कूल में उनके साथियों से तुलना, परफोर्मेंस प्रेशर, खिलौने और गिफ्ट्स के दिखावे और ना जाने क्या-क्या? प्रीति को बड़ा गुस्सा आता था. उसे ये सब बातें बड़ी फ़ालतू लगती थीं. जब कोई उससे कहता कैसी झल्ली सी घूमती है. थोड़ा बन-ठन कर रहा करे, तो प्रीति भड़क जाती. कहती, “ऐसा भी क्या दुनिया से ताल मिलाने की होड़ में दौड़ना कि ख़ुद को ही भूल जाओ.. मुझसे तो नहीं होगा ये सब”. और बात वहीं ख़त्म हो जाती. सबने उसे टोकना छोड़ दिया था. फिर हुआ यूँ कि प्रीति को आगे की पढाई के लिए पुणे जाना पड़ा.
पुणे हो, दिल्ली हो या बम्बई ये सपनों के शहर हैं. बड़ी-बड़ी इमारतें, सबसे पहले आने वाला फेशन ट्रेंड, गाड़ियाँ और नाईट लाइफ. यहाँ आकर स्वतः ही लोगों की चाल-ढाल, पहनावा, रहन-सहन माहौल के हिसाब से बदलने लगता है. वो कहते हैं ना हवा जिस और से आती है उसी और की गंध माहौल में घुल जाती है. बस वही बात है. लेकिन प्रीति? वह क्या महसूस कर रही थी? जो हमेशा ही सादा, सिम्पल, नो-मेकअप, नो फ़ेशन की बात कहती थी उसके सामने आए दिन छोटी-छोटी समस्याएँ आने लगी थीं.
कॉलेज में साथ वाली लड़कियाँ एकदम टिपटॉप आती थीं. जहाँ उनके नेल्स संवरे हुए होते, वहीं प्रीति की उँगलियाँ गंजी दिखती इतने भीतर तक नेल्स कटे होते. बालों लम्बे थे इसलिए बस बिखरा सा जुड़ा बाँध लेती. नॉर्मल सी टीशर्ट और जीन्स पहनती. पैरों में डिज़ायनर फुटवियर की जगह सादा जूते. कुछ दिन तो यह चला लेकिन धीमे-धीमे प्रीति ने ख़ुद पर एक दवाब सा महसूस किया. उसे लगता वह बाकियों से अलग दिखती है शायद इसलिए ही लोग उसे देखकर हँसते हैं, बात-बात में मज़ाक उड़ाते हैं. उसकी सहेलियाँ कितनी सुन्दर रंग पहनती हैं वह एकदम सादा फीके से. वह अपने रंग-रूप पर, लाइफस्टाइल पर ध्यान नहीं देती. शायद यही कारण है कि वह अकेली रह जाती है.
कॉलेज वालों की तरफ से एक पार्टी होनी थी. तैयारियाँ ज़ोरों से थीं फ्रेशर्स पार्टी की. प्रीति एक वर्ष सीनियर हो चुकी थी. उसे याद था कि उसकी फ्रेशर्स में उसके साथ क्या हुआ था. कैसे उसके लहज़े, उसके पहनावे को लेकर उसकी खिल्ली उड़ी थी. पार्टी में वह अपनी तरफ़ से अच्छे से तैयार होकर गई. उसने एक बढ़िया सा सूट पहना. और बाल सँवारे. मन में हालाँकि कुछ शंका थी कि वह जिस तरह जा रही है उसे सजना-संवरना नहीं माना जाएगा. लेकिन उसने अपनी तरफ़ से कोशिश की थी. पूरे आयोजन में वह काम के मामले में केंद्र में रही. लेकिन फिर भी उसे लगता रहा कि उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
ध्यान आकर्षण ऐसी चाहत है जो एक उम्र में होना लाज़मी है. जब आप कई सारे आकर्षक हमउम्रों के साथ पढ़ रहे हों, काम कर रहे हों. पार्टी के बाद प्रीति ने महसूस किया कि अगर वह भी दूसरी लड़कियों की तरह वेस्टर्न पहनकर जाती. हील्स पहनती, साज-सज्जा में भी लेयर्स अपनाती तो उस पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता. वह भी सही मायनों में पार्टी इंजॉय करती ना कि इन्फिरियोरिटी महसूस करती.
हम दूसरों से कमतर हैं, या कई लोग हमसे बेहतर हैं यह मापने के हमारे मापदंड ही ग़लत हैं. बाज़ारवाद ने इन मापदंडों को जितना बढ़ावा दिया उससे कई बच्चे रास्ता भटक जाते हैं. जहाँ उन्हें अपनी ऊर्जा अध्ययन में लगानी होती हैं वहाँ वे पार्टी, डिस्क, कपड़े, शराब, सिगरेट, और यहाँ तक कि ड्रग्स में ख़र्च करते हैं. यह उनके आसपास बना पीयर प्रेशर ही होता है जों उन्हें ‘कूल’ बनने पर मजबूर करता है. छोटे शहरों से, बड़े शहरों में पहुँची कई लड़कियाँ इस पीयर प्रेशर को ना सिर्फ महसूस करती हैं बल्कि ख़ुद को इसकी वजह से कमतर भी आँकने लगती हैं. उनकी धुरी सिर्फ रूप-रंग, पहनने-ओढ़ने पर ही घूमती रहती है. ऐसे में वे दोहरे मानसिक तनाव से गुज़रती हैं. एक और घरवालों का प्रेशर कि कहीं बेटी बिगड़ ना जाए, दूसरी तरफ माहौल का प्रेशर कि ‘तू इतनी सीधी बनकर रहेगी तो कुछ नहीं कर पाएगी’. हाल यह होता है सीधी ना रहने के चक्कर में लड़की अपनी ऊर्जा उन संसाधनों और कार्यों में व्यर्थ करती है जिसे सही जगह इस्तेमाल कर वह अपने लिए कोई बहुत बेहतर मुक़ाम पा सकती थी. स्त्री की आज़ादी या उसकी स्वतंत्रता बाहरी आवरण ने नहीं बल्कि उसकी बौद्धिक और आर्थिक आज़ादी से है. वर्ना आप कितना भी बन-ठन लें आप पर-निर्भर ही रहेंगे.
प्रीति को यह समझने में अभी वक़्त था. वह बेचैन रहने लगी थी. उसे ये बातें परेशान करती थीं कि ये मापदंड इतने तीख़े क्यों हैं. क्यों सब कुछ एक ही ढाँचें में फिट करना है. सबको उसके हिसाब से, वैसा ही रहने की आज़ादी क्यों नहीं? देखा जाए तो आज़ादी है, पूर्ण रूप से. लेकिन मानसिक रूप से माहौल वैसा ही तैयार किया जाता है व्यक्ति उन जैसा ही बन जाने के लिए एक दवाब महसूस करने लगे. प्रीति भी उसी दौर से गुज़र रही थी. और ऐसी वह अकेली नहीं थी. हज़ारों लड़कियाँ यह दवाब महसूस करती हैं. कूल दिखने का, फ़ेशन में रहने का, मेकअप का, पार्लर का, सिगरेट और शराब का, कपड़ों का.
उस दिन प्रीति की एक सहेली की शादी पक्की होने की ख़ुशी में बेचलर्स पार्टी थी. सबने तय किया कि डिस्क जाएँगे. अब डिस्क जाने के लिए उस हिसाब के कपड़े भी चाहिए थी. प्रीति बुदबुदाई, “डिस्क में जाने के लिए भी भेषभूषा तय कर दी गई है. मानो लोग वहाँ नाचने नहीं सिर्फ कपड़े दिखाने जाते हों”. उसकी रूममेट ने समझाया कि पहले तो पार्लर जाए. बढ़िया से बॉडी चमकवाए. उसके बाद कोई सुन्दर सी ड्रेस ख़रीदे और तब डिस्क जाए. वरना लोग उसका बहुत मज़ाक बनाएँगे. प्रीति यूँ तो बोल्ड थी. पढ़ने लिखने में होशियार. बस सजने-सँवरने में फिसड्डी थी.
प्रीति को फिसड्डी नहीं रहना था. उसे भी दूसरों की तरह पूरा आकर्षण का केंद्र बनना था. बस इसी चाहत में और दवाब में प्रीति भी अंततः वही करने लगी जिससे पहले वह दूर भागती थी.
यहाँ मैं हूँ या प्रीति, या चांदनी, नंदा, सोफिया या कोई भी लड़की, हम सभी को यह समझना होगा कि सजने-सँवरने वाली लड़कियाँ किसी दूसरे प्लानेट की नहीं होतीं. वे भी हमारी ही तरह होती हैं. बस उनकी पसंद हमसे थोड़ी अलग है. सजना-सँवरना बुरा नहीं होता, ना ही ऐसा जिसे हेय दृष्टि से देखा जाए. बस सजने से और उस पर मिलने वाली तारीफ़ों से, टिप्पणियों से अपनी सेल्फ-एस्टीम को कम या ज्यादा करना उचित नहीं. हमारा आत्मविश्वास इन टिप्पणियों पर आधारित नहीं होना चाहिए.
औरत की सुन्दर दिखने की चाहत और सुन्दरता के भिन्न-भिन्न पैमाने बनाकर उनसे औरत का तौलन हमेशा से होता आया है. आगे भी होगा. यह एक तरह का ह्युमन नेचर है. कुछ भीतर से आता है कुछ बाहरी दवाब में. लेकिन दूसरों की तौलन-मापन से आप ख़ुद को कितना मापते हो, कितना बदलते हो, यह हमेशा आपके हाथ में होना चाहिए. प्रीति की सुन्दर दिखने की चाह ख़ुद से ख़ुद के लिए आती तो वह नैसर्गिक होती. किन्तु दवाब में लिए गए निर्णय मानसिक स्वास्थ के लिए उचित नहीं होते. क्योंकि ख़ूबसूरती का अर्थ सिर्फ बाहरी आवरण को चमकाना नहीं बल्कि भीतरी व्यक्तिव की पोलिस भी है. जो सदा के लिए होती है.
कौन सा जीवन अच्छा है, कौन सा बुरा यह निर्णय लेने और समझने की उम्र में हमें बहुत ज़रुरत होती है सही आदर्शों की. लेकिन जब सामने सब कुछ एक जैसा ही दिख रहा हो तो आप कितनी देर तक अलग रह सकते हैं. एक चैलेंज आता है सोशल मीडिया पर और आपका सारा अलग होना धरा रह जाता है. ऐसे में ज़रूरी है कि हम इस प्रेशर को पहचानें और यह समझें कि असल में हमारे लिए बेहतर क्या है? हमें हमारी ऊर्जा कहाँ ख़र्च करनी है. अपनी दिमाग को कहाँ इस्तेमाल करना है. मानसिक शांति कितनी आवश्यक है. क्योंकि इसके बिना आपकी सारी लड़ाई, और सारी पढ़ाई ज़ाया हो जाएगी. यह आपको ही तय करना है कि प्रीति का चुनवा उचित था या नहीं.