“चाल = दूरी/समय” और “वर्स्ट केस सिनेरिओ” स्कूल-कॉलेज में पढ़े थे लेकिन उन्हें ज़िन्दगी में इस तरह इस पड़ाव पर इस्तेमाल करने की नौबत आएगी यह ऋतू ने नहीं सोचा था. नौकरी या पढ़ाई के लिए घर से बाहर निकली लड़कियाँ जब अपने लिए कमरा ढूँढ रही होती हैं तो वे गणित के इसी मूलभूत सूत्र का इस्तेमाल करती हैं. दफ़्तर या कॉलेज से निकलने के बाद उन्हें अपनी चाल कितनी तेज़ रखनी होगी कि वे उस दूरी को कम से कम समय में तय कर लें और सुरक्षित अपने कमरे/पीजी पर पहुँच सकें. यह सूत्र सबसे ज़्यादा वर्स्ट केस सिनेरियो को ध्यान में रखकर अपनाया जाता है. क्योंकि आम दिनों में लड़की घूमते-फिरते पहुँच सकती है, लेकिन कभी किसी दिन देरावेर हो जाए, अँधेरा हो रहा हो, सुनसान हो और सामने से या पीछे से कुछ लड़के आते दिख जाएँ ऐसे में अपनी चाल को इतनी रफ़्तार देनी पड़ती है कि घर तक की दूरी कम से कम समय में तय की जा सके. और इसी वर्स्ट केस सिनेरियो को ध्यान में रखकर लड़कियाँ अपने लिए कमरा, घर या पीजी ढूंढती हैं.
ऋतू के मेल पर जब जोइनिंग लैटर आया तो वह कुर्सी से उछल पड़ी. पंद्रह दिन बाद उसे पुणे में ज्वाइन करना था. घर में ख़ुशी का माहौल था. ढेर सारे सपने और अपने अकाउंट में आने वाली तनख्वा किसे ख़ुशी नहीं देती? फिर नौकरी अगर किसी बड़े शहर में मिल जाए तो कहने ही क्या! ऋतू के साथ भी यही था. चिंता थी तो बस मम्मी-पापा को. ऋतू को पुणे पहुँचाना, उसके लिए घर ढूँढना और बाकी सारी व्यवस्थाएँ जो करनी थीं. ऋतू ने समझाया कि उसके कुछ स्कूल टाइम के दोस्त हैं जो उसकी मदद कर देंगे लेकिन बेटियों के मामले में माँ-बाप इतने बेफ़िक्र हो जाएँ तो बात ही क्या? फिर बड़ा शहर, अनजान शहर, अनजान लोग और ऊपर से आए दिन सुनने में आ रही लड़कियों के साथ घटने वाली दुर्घटनाओं की ख़बरें. ऋतू के मम्मी-पापा ने भी तय किया वे ख़ुद उसे छोड़ने जाएँगे.
कितना मज़ेदार है ना, एक बीस साल का लड़का अगर एक तरफ मम्मी, एक तरफ पापा के घेरे में चल रहा हो, अपने लिए नए शहर में घर ढूँढ रहा हो, हर बात उनसे पूछकर, बताकर कर रहा हो तो लोग उसे ममाज़ बॉय, डरपोक, सहमा हुआ जैसे तमगे देते हैं. ‘इतना बड़ा हो गया अभी तक मम्मी पापा का हाथ थामे चल रहा है’ जैसी बातें की जाती हैं. वहीं इसके ठीक उलट, अगर बीस साला लड़की अकेले निकल पड़े तो उसे बोल्ड कहा जाता है. उसके लिए चिंता जताई जाती है. ‘बड़ी हिम्मती है लड़की तुम्हारी, अकेले चली गई?’, ‘बड़े लापरवाह हो, अकेले भेज दिया लड़की को, देख तो लेते रह कहाँ रही है?’ जैसी बातें लड़की के मोहल्ले-पड़ोस-रिश्तेदारों में होने लगती हैं. इन्ही के डर से, और कुछ अपने डर, चिताओं की वजह से भी ऋतू के मम्मी-पापा ने साथ जाने की टिकेट्स करा लीं. दफ़्तर कहाँ है, वहाँ से कितनी दूरी पर अच्छे घर मिल सकते हैं? कोई लड़की है क्या जो साथ रह सकेगी? कौन लड़की है जानती हो क्या? आजकल तो बेटा लड़कियों का भी भरोसा नहीं? जैसी कई बातें ऋतू के सामने भी आईं.
ऋतू की मम्मी को उस दिन पहली बार अपनी पड़ोसन की बातें खटकी जो अक्सर कहा करतीं, “हम तो अकेली लड़कियों को इसलिए कमरा नहीं देते, बहुत रिस्की है लड़कियों को कमरा देना”, “कौन उनकी सुरक्षा की गारंटी ले”, “कल को कुछ हो जाए तो कौन रखवाली करे”. ऋतू की पड़ोसन लड़कों को कमरा देने में नहीं सोचती थीं, क्योंकि लड़कों को सुरक्षा की, एक्स्ट्रा केयर की ज़रूरत नहीं होती, लड़के दिनभर घर में नहीं रहते, लड़के किसी दिन रात ना भी लौटें तो चिंता की बात नहीं, लड़कों को पीछे से अकेले छोड़कर जाने में भी डर नहीं. लेकिन लड़कियाँ, ना बाबा ना, उनके साथ तो कितनी समस्याएँ. सुरक्षा तो है ही, ऊपर से महीने से हो जाएँ तो छत पर कपड़े अलग सुखाओ. पीरेड्स का कचरा भी जमादार उठाता नहीं, ना बाबा ना इससे अच्छा लड़कियों को कमरा ही मत दो. ऐसे हालातों में जो गाँव-देहात की लड़कियाँ ऋतू के छोटे शहर में पढ़ने-नौकरी करने आती थीं उनके सामने आने वाली ये समस्याएँ अगर छोटे शहर की ऋतू को बड़े शहर में भी आईं तो क्या होगा? हैरान मत होइएगा अगर मैं कहूँ कि ऐसी अनेकों ऋतू हैं और अनेकों माँएं जो अपनी बेटियों को बाहर भेजने के नाम से भी डरती हैं.
ऋतू के साथ-साथ उसके कॉलेज की दो और लड़कियों की नौकरी लगी थी. सब अलग-अलग शहर की थीं लेकिन एक-दूसरे को जानती थीं इसलिए साथ रहना तय हुआ. ऋतू के साथ दिक्कत तब आई जब एन मौके पर पापा के दफ़्तर में कोई ज़रूरी काम आ गया अब अकेली मम्मी कैसे इतनी दूर जाएँगी ऋतू के साथ? और चली भी जाएँगी तो वापस कैसे आएंगी? मम्मी तो कभी अकेले इतनी दूर गई नहीं. तब मान-मनुहार से ऋतू के किसी कज़न को बुलाया गया जिसने ‘साथ में किसी पुरुष’ की जगह को भरा क्योंकि ऋतू का अपना कोई भाई नहीं था. इस तरह पुणे जो तीन लड़कियाँ अपनी नयी पारी की शुरुआत करने पहुँची उनके साथ छः लोग पहुँचे. हर लड़की के साथ दो लोग जिन्हें यह तय करना था कि वे कहाँ रहेंगी? और जहाँ भी रहेंगी जिसके साथ रहेंगी सुरक्षित रहेंगी या नहीं. उनके घर से राशन-पानी की दुकानें कितनी दूर हैं. पास में कोई ब्यूटीपार्लर है तो उसमें कहीं कोई कैमरा तो नहीं लगा. घर से दफ़्तर जाने के लिए जो बस स्टॉप है वह ज्यादा दूर तो नहीं. बस स्टॉप के आस-पास कितने बजे तक चहल पहल रहती है. वहाँ से घर पहुँचने में कितना वक़्त लगता है. पड़ोसी कैसे हैं. और ना जाने कितने ही तरीकों से अपनी तसल्ली करके, सुरक्षा के हर पैमाने को मापकर वे छः लोग उन तीन लड़कियों को एक फ्लैट दिलाकर, उसमें सारा सामान सेट कराकर, आसपास की सारी व्यवस्थाएँ बनाकर वापस लौटे.
वहीं इसके ठीक उलट दामिनी का अनुभव बहुत अलग था. दामिनी की नौकरी दिल्ली में लगी थी. उसकी फुफेरी बहन दिल्ली में रहती थी. इसलिए घर वालों ने गुडगाँव में नौकरी करने वाले एक कज़न के साथ दामिनी को दिल्ली भेज दिया. उन्हें समझा दिया गया कि अच्छे से कमरा दिला देना, सब देखभाल करके. दामिनी कुछ दिन फुफेरी बहन के घर ही रही और शाम-सबेरे बहन के साथ ही जाकर दफ़्तर के पास के इलाके में घर ढूँढती रही. उसे जैसे-तैसे अपनी जेब को थोड़ा और फाड़ते हुए एक पीजी मिला जिसमें बारह लड़कियाँ रहती थीं. दामिनी के हिस्से आयीं तीन लड़कियाँ. तीनों अलग-अलग शहरों से आई थीं. पढाई करती थीं. कुछ ही दिन बाद दामिनी को पता चला कि उसे अगले कुछ महीने गुडगाँव जाना होगा. पीजी में तो तीन महीने का एडवांस जमा हो चुका था. इसलिए अब उसके पास अप-डाउन के अलावा कोई चारा नहीं था. ऐसे में शाम के छः बजते और मम्मी का फ़ोन बजने लगता. कितने बजे घर पहुँचेगी? अब कहाँ है? कितनी दूर है? उस पीजी में रहते हुए दामिनी को अहसास हुआ कि उसकी रूममेट्स कई बार पुरुष मित्रों को रूम पर लाती हैं. जिसकी यूँ तो सख्त मनाही थी लेकिन क्योंकि पीजी की मकानमालिक बाहर रहती थीं. और बाकी लड़कियों की आपस में सेटिंग थी इसलिए किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. दामिनी के लिए यह सब नया था. वह उन अनजान लड़कों के सामने असहज होती थी. वह शाकाहारी थी इसलिए कई बार पीजी में बन्ने वाले अंडे उसे उबकाई ला लेते नतीजा यह निकला कि महीने भर बाद ही, दो महीने का एडवांस भूलकर दामिनी ने वह पीजी छोड़ दिया और गुडगाँव में एक नया पीजी ढूँढ लिया.
लड़कियों के मामले में भारतीय माता-पिता से ज्यादा डरा हुआ शायद ही कोई वर्ग हो. बेटी के घर से निकलने के बाद वह जब तक सही सलामत घर वापस ना आ जाए माताएँ चिंता में सूखने लगती हैं.
लड़कियाँ जब पीजी या किराए के घर ढूँढने जाती हैं तो उनके सामने जो सबसे पहली तख्ती रखी जाती है वह होती, “रात को दस बजे के बाद ताला नहीं खुलेगा”, दूसरी होती है, “कमरे पर कोई पुरुष मित्र नहीं आएगा, भाई भी नहीं”. इसके अलावा अगर लड़की थोड़ी ज्यादा बात-चीत करने वाली हो, घूमने-फ़िरने की शौक़ीन हो, कपड़ों से थोड़ी मॉडर्न हो तो उसे थ्री-टायर सिटी में एक अच्छा घर ढूँढना कठिन होता है. मकान देने वालों का दिमाग लड़की का हुलिया देखकर पहले ही जजमेंट पास कर देता है. घर वाले भी अगर शहर में कोई रिश्तेदार रह रहा हो तो कोशिश करते हैं उनके आसपास ही कमरा मिल जाए, नज़र बनी रहेगी. ऐसे में बस यही लगता है कि तरक्की अपनी जगह है, लेकिन इस तरक्की में लड़कियों का हिस्सा कहाँ है? उनकी सुरक्षा का मामला यूँ चतुराई से दरकिनार करके कहीं हमने उनके लिए एक भयावह माहौल तो नहीं बना दिया है कि घर से दूर नाईट ड्यूटी कर रही बेटी की माँ रात बेचैनी में काटने को मजबूर है.
बचाव ही सुरक्षा का सबसे सफ़ल और अच्छा तरीका है यही मानते हुए हमने आजतक लड़कियों को या तो घर के भीतर रखा या फिर उन पर काफ़ी अधिक पावंदियाँ लगाईं. बाहर निकलने पर यदि हमें समस्या और चुनौतियों से जूझना पड़ता है और उसमें ख़तरा होता ही है लेकिन बाहर ना निकालकर हम उन परिस्थितियों को और मजबूत कर देते हैं जो सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाती हैं. एक कहावत है, “Take the bull by the horns”. परिस्थितियों से भिड़कर ही उन्हें दूर किया जा सकता है. उनसे भागकर नहीं. बस हमें इस युद्ध में अपने हथियार तैयार रखने हैं, जो सरकार समाज और परिवार द्वारा दिए जा सकते हैं. सरकार अगर स्ट्रीट लाइट्स, सीसीटीवी, इल्लीगल पार्किंग, नाईट पेट्रोलिंग जैसे ज़रूरी कदम उठाए, समाज अपनी सोच बदले तो उन्हें एक बेहतर, सुरक्षित माहौल दिया जा सकता है. उसके बाद बस लड़कियों को नदी की तरह बहने देना, रास्ते में पहाड़ आएँगे तो वे ख़ुद उनसे टकराकर आगे बढ़ जाएँगी, अपना रास्ता बना लेंगी.