

अब मदारी, नट-नटनी के खेल पुराने हो गए. पहले ख़ूब दिखते थे. नटनी जो दो बाँसों के बीच बंधी रस्सी पर क़दम साधते हुए आगे बढ़ती है. इसके लिए उसे बहुत धैर्य और एकाग्रता की ज़रुरत होती है. ज़रा ध्यान भटका कि वह गिरी. प्रीति की मम्मी ने भी उसे ऐसे ही समझा-बुझा कर भेजा था, “देख बेटा सिर्फ पढ़ने में मन लगाना. इधर-उधर कहीं फ़ालतू घूमना फिरना नहीं. फ़ालतू दोस्त भी मत बनाना. समय से जाना-आना. अकेले कहीं मत जाना” जैसी लाखों हिदायतें के साथ. लेकिन प्रीति कहाँ जानती थी कि कॉलेज ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही दो आँखें उसकी पीठ से चिपक जाएँगी. कभी सामने आकर उसके चेहरे से, तो कभी उसके कपड़ों को इस तरह देखेंगी कि एक पल को प्रीति को लगे मानो वह कुछ पहने ही नहीं है. वे आँखें उसे इस कदर घूरतीं कि वह हर समय कहीं छिप जाने की कोशिश करती. इधर मम्मी रोज़ फ़ोन पर पूछतीं, ‘सब ठीक है ना?’ और प्रीति हिम्मत करके भी यह नहीं कह पाती कि “नहीं कुछ ठीक नहीं है. कोई लड़का है जो उसके पीछे पड़ा है, उसे घूरता है.”
प्रीति जानती थी कि बड़ी मुश्किल से, उसे जो मम्मी-पापा ने बाहर पढ़ने भेजा है वो इस तरह की बातें सुनेंगे तो कहेंगे “तुम वापस आ जाओ” या हर समय चिंता में बिताएंगे. प्रीति ने अपनी सहेलियों से बात की तो पता चला ऐसी वह अकेली नहीं है. और भी हैं जो “ईव टीजिंग” की शिकार हैं. दो दिन पहले ही उसकी रूममेट शिवी शाम के समय कोचिंग से वापस लौट रही थी जब गली के मोड़ पर दो लड़के बाइक लहराते हुए आए और उसकी छाती पर हाथ मारकर चले गए. उसने जब गुस्से से उन लड़कों की तरफ़ देखा तो वे दैत्यों जैसी हँसी हँस रहे थे. मानो कोई ट्रोफी जीतने वाला काम किया हो. शिवी दो दिन तक परेशान रही. रोई, चिंतित रही लेकिन उसके आगे क्या? उसने सोचा कि वह पुलिस में शिकायत कर दे तो उसे पिछले दिनों कॉलेज में घटी एक घटना याद आ गई. जब एक लड़के ने शिकायत करने की वजह से गुस्सा यूँ निकाला कि किराए की गाड़ी लाकर सड़क पर चल रही तीन लड़कियों को कुचल दिया. जिसमें से एक शिकायतकर्ता थी, बाकी दो उसकी सहेलियाँ. दुष्परिणाम यह हुआ कि सहेलियों की ऑन द स्पॉट डेथ हो गई. शिकायतकर्ता कई दिनों तक अस्पताल में रही.
तकनीकि के ज़माने यह ईव टीजिंग ग्राउंड के साथ-साथ डिजिटल भी हो गई है. कई बार अकारण ही लोग दुश्मन बन जाते हैं और झूठे मामलों में फँसा देते हैं. प्रीति ने जब अपने स्तर पर उस लड़के को डांटने फटकारने की कोशिश की तो लड़के के अहम् को गहरी ठेस पहुँची. उसने प्रीति को सोशल मीडिया पर फॉलो करना शुरू किया. वह क्या करती है, क्या लिखती है, क्या पोस्ट करती है हर बात पर नज़र रखी. उसने देखा कि प्रीति किसी पेज की एडमिन है. वह पेज शहर के बारे में था. शहर से सम्बंधित तस्वीरें और जानकारियां पोस्ट करता था. उस लड़के ने पेज पर जाकर किसी बहुत बड़े राजनेता की कुछ अश्लील तस्वीरें पोस्ट करवाईं. और फिर कुछ लोकल नेताओं के सामने इसे इस तरह प्रस्तुत किया कि प्रीति ही उस राजनेता के खिलाफ़ अश्लीलता फैला रही है. नतीजा यह निकला कि पार्टी को ख़ुश करने के लिए उन लोकल नेताओं ने प्रीति के खिलाफ़ साइबर सेल में शिकायत कर दी. प्रीति को थाने जाना पड़ा. नारे बाजी और मीडिया को बुलाकर “पेज एडमिन” के खिलाफ़ माहौल बनाया गया. अंततः प्रीति को घर वालों की मदद लेनी पड़ी. उसके पिता ने अपने रिश्तेदारों से मदद ली जो पुलिस में ऊँचे पदों पर थे. चंद घंटों में प्रीति का मामला रफ़ा-दफ़ा हुआ. और प्रीति को पढाई बीच में ही छोड़कर घर लौटना पड़ा. इस वजह से नहीं कि उसकी कोई ग़लती थी, बल्कि इस वजह से कि बिना ग़लती के ही उसे यह सब भुगतना पड़ा. माता-पिता डर चुके थे, “कल को लड़के ने कुछ अनर्थ कर दिया तो.. हम तो कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे”.
बेटियों के साथ कुछ भी ग़लत हो, माता-पिता द्वारा बोले जाने वाले ऐसे डायलोग उन्हें हिम्मत देने की बजाय उनकी रही-सही हिम्मत भी तोड़ देते हैं. ऐसे में शिवी हो या प्रीति इनके पास क्या उपाय बचते हैं? पुलिस के पास जाना एक उपाय है लेकिन एक आम लड़की पुलिस स्टेशन में घुसने से ही कतराती है. उसे डर लगता है कि अगर घर बात पहुँच गई तो क्या होगा? पुलिस सुनेगी भी या नहीं? और अगर पुलिस के पास ना जाए तो क्या करे? या तो अपना रास्ता बदल ले, या समय.
शिवी ने भी यही किया. पहले उसने अपना रास्ता बदला, जब काम नहीं बना तो कॉलेज से वापस आने की बस बदली. जब उससे भी काम नहीं बना तो उसने अपने ही किसी क्लासमेट से दोस्ती की. उससे मदद माँगी. उसके साथ आना-जाना शुरू किया. नतीजा यह निकला कि शिवी की मालिकमकान ने उसके घर इत्तला देदी, “आपकी लड़की का कहीं चक्कर चल रहा है. देख लीजिएगा, हमारी तो ज़िम्मेदारी बताने की है.” इधर कुआँ उधर खाई, शायद यह कहावत हम लड़कियों के लिए ही बनाई गई होगी. वे नटनी की तरह एकाग्र होकर चलने की भरसक कोशिश करें लेकिन उनकी एकाग्रत तोड़ने और उन्हें गिराने के लिए अनगिनत तत्व मौजूद हैं.
ऐसे हालातों में नीतू का क़दम उचित और उम्मीद भरा लगता है. नीतू ने जबसे कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया था उसी दिन उसे एक नंबर से मिस कॉल आया. उसने नंबर ब्लाक किया तो दूसरे नंबर से मिस कॉल आने लगे. जब दूसरा नंबर भी ब्लाक होने के बाद मिस कॉल आने नहीं रुके तो नीतू को लगा यह उपाय नहीं है. इस समस्या को चतुराई से हैंडल करना होगा. उसने फ़ोन पर बात की. हर फ़ोन कॉल की रिकॉर्डिंग की. उसे डांटा, फटकारा, बातों-बातों में उससे उसकी कुछ जानकारी लेने की कोशिश की. जब लड़ने ने डांट के बाद भी फ़ोन करना नहीं छोड़ा और नीतू ने मिलने की फ़रमाइश करनी नहीं छोड़ी तो नीतू मिलने के लिए राज़ी हो गई. तय समय से कुछ पहले वह मिलने की जगह से कुछ दूर मुँह पर कपड़ा बाँधकर खड़ी हुई. लड़का पहुँच गया है और क्या पहना है की कंफर्मेशन लेकर उसने लड़के की तस्वीरें खींचीं. और वापस लौट गई. फिर उसने एक पूरी रिपोर्ट तैयार की और फोटो के साथ महिला हेल्पलाइन का सहारा लिया. इससे ना सिर्फ नीतू की बात सुनी गई बल्कि उसे यह भी समझाया गया कि यदि वह शुरू में ही इत्तला दे देती तब भी उसकी मदद की जाती. उसे बाद कुछ दिन तक पुलिस ने नीतू के घर के आसपास का इलाका अपनी गश्त में रखा. इससे ना सिर्फ नीतू को हिम्मत मिली बल्कि उसे यह यकीन हुआ कि शिकायत करने से सुनवाई होती है. पुलिस ने लड़के की ना सिर्फ ख़बर ली बल्कि उसे यह भी समझाया कि यदि आगे नीतू को किसी भी तरह की हानि पहुँचती है तो इसके लिए उस लड़के को ही ज़िम्मेदार माना जाएगा. नतीजतन लड़के ने अपनी ग़लती स्वीकारी और पीछे हट गया.
देखा जाए तो यह भी अंतिम हल नहीं है. तकनीकि ने जहाँ ईव-टीज़र्स के हाथ में हथियार बढ़ा दिए हैं वहाँ लड़कियों को बचने के लिए अपने सुरक्षा कवच भी मजबूत करने होंगे. माता-पिता का भरोसा, और भावनात्मक सपोर्ट जो लड़कियों के लिए सबसे बड़ा सुरक्षा कवच होता है. समाज या परिवार क्या कहेगा से पहले यह सोचना ज़रूरी है कि बेटी किसी मानसिक परेशानी से तो नहीं गुज़र रही.
दूसरा सुरक्षा कवच है शारीरिक रूप से मजबूत बनाना. डिफेन्स ट्रेनिंग और चौकन्ने रहने की ट्रेनिंग. सड़क पर यदि कोई हाथ मारने की कोशिश करे तो हाथ पकड़कर उसे गिराने की हिम्मत लड़कियों में हो. वह अगर हमला करे तो उससे लड़ने की हिम्मत हो. और यह हिम्मत सिर्फ शारीरिक रूप से नहीं मानसिक रूप से भी चाहिए.
तीसरा और अंतिम सुरक्षा कवच है प्रशासनिक सावधानी. इस तरह की घटनाओं पर पुलिस का चौकन्ना होना, फ़ौरन हरकत में आना, और ज़रूरी कदम उठाना ताकि अपराध को बढ़ने से पहले रोका जा सके. साथ ही कड़ाई से गस्त होना ताकि कोई भी अपराध को घटने से पहले ही रोका जा सके. लड़कियों को भी बिना डरे महिलाहेल्प लाइन या पुलिस के पास शिकायत करने में कतराना नहीं चाहिए. अपनी हर बात का रिकॉर्ड डाटा रखना चाहिए. शिकायत होगी तभी सुनवाई की उम्मीद होगी. बाकी अंतिम सत्य तो यही है कि यह लड़ाई थोड़ी कठिन ज़रूर है लेकिन हमें नीतू बनकर ही इससे लड़ना होगा, प्रीति या शिवी की तरह डरे तो हमें और डराया जाएगा. अब यह हमें चुनना है कि हमें डरकर या नटनी की तरह हमेशा पतली रस्सी पर जीवन बिताना है या मजबूती से खड़े होकर हालात का सामना करना है.