उस दिन सड़क पर युहीं
तिरंगा खिलखिला रहा था,
न आजादी का जश्न था,
न गणतंत्र की बधाई,
फिर भी नंगे पाँव,
युहीं दौड़ा जा रहा था,
वो बेफ़िक्र था, उसके कल से,
बस मशरूफ़ था आज की ख़ुशी में,
क्या होगा कल किसने देखा,
क्यूँ न जीलूं मैं, बस आज ही में,
यूँ तो, हाल फटे थे उसके,
इज्ज़त पर भी, कुछ जोड़ लगे थे उसके,
न सलीके की समझ थी,
न ढोंग, न दिखावा,
जो था, सच्चा था,
और न माँग रहा था ज्यादा,
आजतक बहुत की कोशिश ज़िन्दगी ने,
थपेड़े खिलाने की,
क्या है किसी को होश यहाँ,
मेरे आशियाने की ?
कभी मेंहगाई ने लूटा,
कभी राजनीति ने कुचला,
कभी भ्रष्ट नेताओं के चलते,
मुँह को एक निवाला भी न मिला,
पर फिर भी सुनता हूँ हर मुँह से,
कि अब मैं आज़ाद हूँ,
अब किसी युद्ध की,
न जड़, न फसाद हूँ,
बस इसी ख़ुशी को मनाने,
आज मैं निकल पड़ा,
ढूंढ रहा था सच्चे हाथ,
और ये मासूम ले मुझे चल पड़ा,
कुछ पल को ही सही,
महफूज़ साँसे ले रहा हूँ,
फिर मिलूँगा तो और गुफ्तगू होगी,
अभी तुम जाओ, मैं कुछ पल की खुशियाँ जी रहा हूँ……अंकिता !!