कमरे के बाहर बालकनी में अपनी डायरी लेकर बैठी वो पिछले 1 घंटे से यही सोच रही थी कि आखिर इसमें लिखे क्या ! वो अपने इस ख़याल पर जितना आश्चर्यचकित थी उससे ज्यादा अपनी फितरत पर। चंचल जिद्दी और द्रण स्वभाव की वो जितनी जल्दी चीज़ों से उदास होती थी, ख़ुद को मना भी लेती थी और तकलीफों को पीछे धकेल आगे बढ़ जाती थी, यही तो थी उसकी फितरत….!! उसे याद नहीं अब तक कितने हज़ार शब्द लिखकर वो कितनी ही डायरियों के कितने ही पन्ने अपने विचारों से बर्बाद कर चुकी थी, या यूँ कहें कि अपने उन लम्हों को कैद कर चुकी थी जिन्हें वो कभी किसी से बाँट नहीं पाई। उनमें से कई पन्ने ऐसे अभागे भी थे जो महज़ इस बात की सज़ा पा चुके थे और जल चुके थे क्योंकि उनपर लिखे शब्द बहुत ही ख़ास और आंतरिक विचारों के अहसास थे जिन्हें किसी के पढ़ लेने के डर से उन्हें आग में सोंप दिया गया। लेकिन ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था कि वो कभी अपने विचारों को लिख ना पाई हो, क्या उसके मन से लिखने की चाहत मरने लगी थी ? क्या अब वह कभी लिखना नहीं चाहेगी ? क्या अब उसे इस डायरी से आज़ादी मिल जाएगी और वो खुलकर उन सबसे अपने विचार कह पायेगी जिनसे ना कह पाने का कारण वो डायरी है।
इसी तरह के ना जाने कितने विचार उसके मन में कौंध रहे थे लेकिन जैसे ही वह कलम उठाकर कोई अक्षर बनाने की कोशिश करती तो मन मस्तिष्क का पूरा ब्लैक-बोर्ड ख़ाली हो जाता और कोई भी अक्षर नहीं मिल पाता जिससे वो शुरुआत कर पाए।
बालकनी में हवा तो कुछ ख़ास नहीं चल रही थी लेकिन डायरी के पन्ने इतनी तेज़ी से उड़कर पलट रहे थे जैसे उनके ज़रिये डायरी अपनी नाराज़गी बयां कर रही हो और कह रही हो कि “जबसे होश संभाला और मन के भावों को समझना शुरू किया तबसे मैं ही हूँ तेरी सच्ची साथी जो तेरी हर पीड़ा को, हर अहसास को, हर ख़ुशी को उतनी ही उत्सुकता से बाँटती हूँ जितना कि तू ख़ुद में महसूस करती है। जब भी तुझे ज़रुरत हुई मैं हमेशा तुझे वहीं मिली जहाँ तू मुझे छोड़कर गयी थी। तो फिर आज क्यूँ मुझसे अपने मन के भावों को छुपाकर मेरे प्यार और दोस्ती का अपमान कर रही है। कह क्यूँ नहीं देती जो मन ही मन तुझे जला रहा है।” लेकिन वो भी क्या करती… इतना असहाय तो उसने भी कभी ख़ुद को महसूस नहीं किया था। इतनी निर्मोही तो वो कभी नहीं थी। हालाँकि वो हमेशा से खुद को समझाती यही आई थी कि उसे निर्मोही बनना है ताकि वो बिना किसी दर्द के हर पीड़ा को सह सके, बिना किसी भाव के हर आघात की चोट झेल ले लेकिन चाहकर भी वो कभी निर्मोही बन नहीं पाई। तो फिर अब… अब ऐसा क्या हुआ जो किसी भी भाव को महसूस ही नहीं कर पा रही है। सबसे अलगाव महसूस कर रही है। किसी भी समस्या को दूर करने और उससे लड़ने की बजाय उसे स्वीकारना चाहती है अपनी किस्मत मानकर… कहीं दूर बहुत दूर जाना चाहती है जहाँ सिर्फ शांति हो, अंधकार हो, और सन्नाटा हो।
इतनी लाचार तो वो कभी नहीं थी कि अपने ही मन के भावों में उलझकर ना समझ पाए, ना लिख पाए ना कह पाए… तो फिर आज ??
क्या इसकी वजह वह अधूरी ख़ुशी थी जिसका ना मिल पाना उसे निर्मोही बना रहा थी, और यह मानने पर मजबूर कर रहा था कि जिस तरह यह ख़ुशी उससे दूर जा रही है आने वाली खुशियाँ भी जा सकती हैं तो फिर उनके पीछे भागना क्यूँ, उनके लिए लड़ना क्यूँ ? और लड़ना भी तो आखिर कब तक ? आजतक वह हर हालात से, हर तकलीफ से, हर समस्या से लड़ती ही तो आई थी लेकिन हर बार कुछ ना कुछ छूटा और उसने यही सोचकर मन को समझाया कि आज नहीं तो कल मिल ही जायेगा, लेकिन अब शायद वह अपने अन्दर एक थकान महसूस कर रही थी, एक हार महसूस कर रही थी जो उसे निर्मोही बना रहा था। अपने ही विचारों में हर पल होती इतनी प्रतिद्वंदिता उसे अपने ही विचारों से दूर भागने पर मजबूर कर रही थी।
वो नहीं चाहती थी कि उस ख़ुशी से दूर जाने के लिए वो खुद में नफ़रत पैदा करे और प्रेम तो अब उसका था ही नहीं। और, नफ़रत और प्रेम दोनों को हटाकर एक स्थिर भाव आना उसे असंभव सा लग रहा था। ना जाने कब और कितनी आसानी से वो परवाह और अपनापन क्षीण होता नज़र आ रहा था उसे, जो पहले ख़ुद के लिए महसूस करती थी और दिख रहा था तो सिर्फ इंतज़ार… एक ऐसा इंतज़ार जिसके ख़त्म होने पर शायद सब नष्ट होने वाला था, शायद सदा के लिए और शायद विचारों का भी एक अंत होने वाला था सदा के लिए। लेकिन इस सबके ख़त्म होने से पहले आज वो कुछ ऐसा लिखना चाहती थी जो वह अपने अन्दर महसूस कर रही थी।
काफी देर तक पिछले भरे पन्ने पलटकर अपने भावों को मरने से रोकती रही, ये वही पन्ने थे जो उसने पिछले कुछ दिनों में उस ख़ुशी की चाहत में भरे थे। उसे लगा शायद ये पन्ने पलटने से उसे भावों में लचीलापन फिर मिल जाये और वो फिर से सब कुछ महसूस कर पाए… लेकिन उसका दिल तो जैसे आज ये ठान चुका था कि अब वह कुछ भी महसूस नहीं करना चाहता…. बस एक आराम चाहता है सदा के लिए… एक सुकून भरी नींद चाहता है हर पल सिकुड़ती चाहतों की पोटली से, और एक शांति चाहता है जो हर कोने में जाकर लड़ रहे भावों को बाहर खदेड़ फेंके….. और यही सोचते-सोचते ना जाने कब उसकी कलम ने डायरी के उस पन्ने पर जहाँ आज की तारिख लिखी थी उसके ठीक नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में “निर्मोही” लिख दिया और एक गहरी साँस लेकर उसने डायरी को बंद कर दिया…. शायद सदा के लिए और एक हल्की से मुस्कान और आँख के कोने पर आये आँसू के साथ ख़ुद को शाबाशी दी कि आखिर लिख ही दिया उसने अपना आख़िरी शब्द और हारकर भी जीत ली अपने विचारों की जंग।