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एक चुम्मा तू हमको उधर देदे

February 3, 2017Ankita JainArticlesNo Comments

युवाओं के सामजिक कर्तव्य

इस विषय पर किसी भी प्रकार की चर्चा से पहले हमें यह समझना बेहद ज़रूरी है कि “समाज” क्या है ? कभी सोचकर देखा है कि क्या है समाज की परिभाषा ? हम अक्सर अपने आस-पास के लोगों से सुनते हैं, समाज क्या कहेगा, समाज वालों का ऐसा मानना है, समाज के हित के लिए यह ज़रूरी है, वगेरह वगेरह। लेकिन ये समाज है क्या ? क्या कोई कम्युनिटी है जैसे नगरपालिका होती है, या फिर कोई ग्रुप जैसे कोई एन.जी.ओ. होता है, जवाब मिलेगा नहीं। यह समाज नहीं है। तो फिर ?

इस छोटे से सवाल का जवाब ढूँढने के लिए बहुत ज्यादा सोचने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि इसका जवाब है “आप ख़ुद” । जी हाँ, बेशक़ यही जवाब है, आप जिस जगह रह रहे हैं वहां आस-पास रहने वाले लोग आपके लिए समाज हैं, और आप उनके लिए, तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि आप ख़ुद भी एक समाज हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि समाज में व्याप्त बुराइयों को सुधारने के लिए आपको सबसे पहली शुरुआत ख़ुद आपसे ही करनी होगी। अर्थात्, जो कर्तव्य समाज के लिए आपके हैं, वे सबसे पहले आपके अपने लिए हैं, क्योंकि एक बेहतर समाज की स्थापना के लिए बेहद ज़रूरी है कि उसकी बेहतरी की शुरुआत हम ख़ुद को बेहतर बनाकर करें।

अब हम सोचेंगे कि युवाओं को ही सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कहा जाता है। दरअसल महत्वपूर्ण तो सभी होते हैं, चाहे वह किसी भी लिंग, जाति या उम्र के हों, लेकिन युवाओं को महत्वपूर्ण इसलिए कहा गया है क्योंकि वे “अंगीकरण” की उम्र से गुज़र रहे होते हैं। यह उम्र का वह दौर जब हम सीखते हैं, तो अगर हम सही और सच सीखेंगे तो हम एक बेहतर समाज की स्थापना कर पायेंगे।

आज हमारे सामने कई सारी समस्याएं हैं, अगर सबसे छोटी समस्या देखि जाए तो वो हमें हमारी गली के नुक्कड़ या किसी कोने में गंदगी के रूप में दिख जायेगी और अगर हम बड़ी समस्या को देखें तो वह हमें चौराहे पर भटके युवाओं द्वारा बेआबरू होती बेटियों के रूप में दिख जायेगी।

फ़िलहाल हम यहाँ एक समस्या को लेकर चलते हैं, युवाओं और फिल्मों का संबंध घनिष्ट होता है, मनोरंजन का इससे बेहतर साधन कुछ और नज़र नहीं आता। लेकिन इस मनोरंजन के साधन का दूसरा पहलु यह भी है कि यह हमारे समाज पर प्रत्यक्ष परिवर्तन लाता है। फिल्मों में पहने जाने वाले कपड़े हम पहनना शुरू कर देते हैं. हेयर स्टाइल, रहने के तौर तरीके वगेरह। इसके अलावा फिल्मों में गाये जाने वाले जैसे कि “एक चुम्मा तू हमको उधर देदे”, एक बेहद ही प्रचलित गाना, जिसे रेडियो या टीवी से ज्यादा सड़क चलते आवारा लड़कों ने गाया होगा। इस गाने के माध्यम से बड़ी ही आसानी से वो अपने दिल की बात कह देते हैं। सिर्फ यही नहीं, इसके अलावा बहुत से ऐसे गाने हैं जो छेड़-छाड़ करने में आवारा लड़कों की मदद करते हैं। अब यदि हम ये कहें कि इसमें ग़लती बॉलीवुड की है, जो अक्सर कहा जाता है, तो यह पूरी तरह सही नहीं होगा, क्योंकि बॉलीवुड में कई ऐसे गाने भी हैं जो इसी “रोमांस” को बड़ी सादगी से पेश करते हैं, जिन्हें लता जी, या उन्हीं जैसे कुछ सम्माननीय संगीतकारों ने गाया व लिखा है।

बॉलीवुड को भला-बुरा कहने वाले समाज सुधारक अक्सर ये कहते नज़र आते हैं कि बॉलीवुड में परोसी जाने वाली अश्लीलता भी एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदार है, बिगड़ते माहौल की । लेकिन अगर हम ख़ुद में झाँककर देखें तो क्या हम ख़ुद लालायित नहीं होते एक ऐसी फिल्म के लिए जिसके प्रोमो में हमने लड़का/लड़की को किस करते हुए या लिपटते हुए या कुछ ऐसे डाय्लोग्स जिनमें मजाक के नाम पर भद्दी और ना बोलने लायक बातों का उपयोग किया हो, दिखाया जाने वाला हो ? इन फिल्मों के लिए पूरा मूवी हॉल फुल भरा होता है, लेकिन अगर इसी की जगह पर कोई ऐसी फिल्म हो जिसमें रोमांस के नाम पर सिर्फ हाथ पकड़ना, साथ में घूमना या गले मिलना दिखाया जाने वाला हो तो दर्शकों की संख्या कम होती है।

अगर बॉलीवुड का दोष कहें तो सिर्फ इतना कि उसने हैवान के मुँह में खून लगाने का काम किया, अब उसे स्वाद लग गया तो वह उसी ओर भागेगा जिस ओर उसे वह मिलेगा। पर क्या हम हैवान हैं ?? जब भी कोई बलात्कार, छेड़छाड़ की घटना होती है, अश्लील सिनेमा को भी दोषी ज़रूर ठहराया जाता है, लेकिन क्या हमने कभी ख़ुद उस अश्लील सिनेमा का बहिस्कार करने की कोशिश की ? “मस्ती व क्या कूल हैं हम” जैसी फ़िल्में समाज का हर वर्ग बड़े चाव से देखने जाता है, तो इसमें सिर्फ दोषी बॉलीवुड कैसे हुआ ? फ़िल्में तो “मोड़, डोर, लुटेरा, द लंच बॉक्स, मद्रास कैफ़े” जैसी भी बनती हैं, जो कभी करोड़ों नहीं कमा पातीं, क्योंकि इनमे ना तो कोई आइटम सोंग में नाचने वाली लगभग बिना कपड़ों की लड़की होती है, ना कोई बेडरूम सीन। इसलिए इनके दर्शकों की संख्या अपने आप कम हो जाती है।

कम उम्र में या जवानी में इस तरह के दृश्यों की तरफ लालायित होना स्वाभाविक है, उसे देखने के बाद उसे करने की इच्छा होना भी स्वभाविक है, अगर आप ये चाहते हैं कि आप अपने बच्चे को मेनू में पनीर दिखाएँ और खाने को दाल रोटी दें तो यह संभव नहीं, और कम उम्र में या जवानी में रोमांस किसी पनीर से कम नहीं। और फिर अगर आप यह उम्मीद करते हैं कि आपका बच्चा फ़िल्में तो देखे वो जिनमें यह सब दिखा रहे हों और किसी के साथ सम्बन्ध भी ना बनाये तो इसे रोक पाना भी एक हद तक संभव नहीं।

अगर हम सच में इस सबको संस्कारों के खिलाफ मानते हैं, ग़लत मानते हैं तो बदलाव की ज़रुरत हमें ख़ुद से शुरू करनी होगी, बॉलीवुड को दोष देकर नहीं, हम हैवान नहीं हैं कि खून का स्वाद चखा तो उसकी ओर लालायित हो जाएँ, हम इंसान हैं जो अपना सही गलत जानकर सही को अपनाने और गलत का बहिस्कार करने की बुद्धि रखते हैं। उम्र की परिपक्वता से पहले किया गया काम नुकसानदेह ही होता है।

यहाँ फ़िल्में सिर्फ एक उदाहरण हैं, इसके अलावा भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हम दोषी हैं लेकिन हमें लगता है कि दोषी वह है जो उस क्षेत्र में कार्यरत है। अतः समाज के प्रति हमारा/युवाओं का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य यही है कि हम सच और सही को पहचाने। अच्छे और बुरे का भेद जाने। हम यह जानने की कोशिश करें कि जो हम कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा। बुद्धि का प्रयोग करें और अपने विचारों के द्वार को हमेशा खुला रखकर किसी भी कार्य को करने से पहले उसके बाद मिलने वाले हर परिणाम पर ध्यान दें। यदि हम इतना भी ठीक से कर पाए तो हम समाज के प्रति एक बेहतर ज़िम्मेदारी निभा पायेंगे।

Tags: Ankita Jain, अंकित जैन
Ankita Jain
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