Facebook
Twitter
Google+
LinkedIn
Instagram
Skype
logo01logo02
  • Home
  • Stories On Air
    • Big FM Show – Yaadon Ka Idiot Box
    • Big FM Show – UP Ki Kahaniyan
  • Published Articles
  • Blogs
    • Stories
    • Articles
    • Poetry
  • Gallery
  • Books
  • Media Coverage
  • Book Reviews
    • Reviews In Digital Media
    • Reviews In Print Media

अजनबी हमसफ़र

February 3, 2017Ankita JainStoriesNo Comments

(1)

पिछले बीस मिनिट से हाथ में उसका ख़त लिए स्टाफ रूम की खिड़की से मैं उसे कई दफ़ा यहाँ-वहां आते-जाते देख रहा हूँ, लेकिन अब तक हिम्मत नहीं कर पाया हूँ कि जाकर उससे मिलूँ और कह दूँ कि मैं ही हूँ वो… कहूँ भी कैसे… कहने के लिए शब्द बोलने पड़ते हैं और बोलने के लिए आवाज़ चाहिए होती है… और अगर मेरे पास आवाज़ होती तो मैंने पिछले साल ही उसके भेजे ख़त में लिखे नंबर पर फ़ोन करके उसे बता दिया होता कि मुझे वो पहली नज़र में ही पसंद आ गयी थी… लेकिन अब… अब क्या करूँ ….

ठक-ठक … मैं अपनी उलझन में और उलझता उससे पहले ही हरी सिंह ने आकर दरवाज़ा खटखटाया..

“प्रिंसिपल सर ने आपको याद किया है”” हमारे मूक-बधिर स्कूल के पूरी तरह सुन-बोल सकने वाले चपरासी हरीसिंह को मैंने इशारे में कहा कि “आता हूँ”” और एक बार फिर ख़त पर नज़र डाली… पता नहीं शायद एक बार और पढ़ने से मुझमें हिम्मत आ जायेगी और मैं जाकर उसके सामने खड़ा हो जाऊँगा… या फिर मेरे एक बार और पढ़ने से शायद उसकी लिखी लाइन्स बदल जायेंगी…

“आपका क़र्ज़ अदा कर रही हूँ, उस दिन आपने जो मेरी मदद की उसके लिए मैं ताउम्र आपकी शुक्र गुज़ार रहूँगी, मिलने पर सूचित करें…..

वैसे मुझे ख़ुशी होगी अगर मैं आपसे एक बार मिल सकूँ या बात कर सकूँ .. अपना नंबर भेज रही हूँ…”

अपना नंबर लिखने वाली लाइन उसने कुछ लाइन्स छोड़कर लिखी, शायद लिखते वक़्त उसे जो हिचकिचाहट थी उसका अहसास वो मुझे कराना चाहती थी और जताना चाहती थी कि ““इतनी आसानी से मैं किसी को अपना नंबर नहीं देती, वो तो तुमने मेरी मदद की इसलिए बात करना चाहती हूँ।””

उसका ये ख़त पिछले एक साल में मैंने 365 गुणा 2 या शायद 3 बार पढ़ा होगा, लेकिन आज शायद साल भर की पूरी कसर निकाल रहा हूँ…

एक बार फिर ठक-ठक हुई, लेकिन इस बार हरी सिंह के कुछ कहने से पहले ही मैंने हामी में सर हिलाया और स्टाफ रूम से निकलकर प्रिंसिपल रूम की तरफ चल पड़ा…

मैं प्रिंसिपल रूम की तरफ जा रहा हूँ लेकिन मेरा मन वापस उसी ट्रेन में जहाँ मैं उससे पहली बार मिला था … (एक गहरी साँस लेकर मैं सोचने लगा) “

“भाई साहब अन्दर बैठ जाएँ”” उस दिन मैं ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा था तो टीसी ने आकर टोका था, सुबह के 4:30 बजे थे, सब सोए हुए थे, लेकिन मुझे पूरी रात नींद नहीं आई थी।

अगर दिन का सफ़र होता तो आराम से कट जाता, दिन के सफ़र में स्लीपर कोच ज़्यादा एंटरटेनिंग होता है। पूरे दिन बिन बुलाये मेहमानों की आओ भगत करनी पड़ती है, “अरे भैया बस अगले स्टेशन पर उतरना है” कहकर जनरल के टिकेट से स्लीपर में बैठने वाले लोग मनोरंजन करने की और सफ़र कर रहे लोगों को एंटरटेन करने की पूरी कोशिश करते हैं, ताकि टीसी आये तो जिनकी सीट पर वे जनरल के टिकेट से अधिकार जमाकर बैठे हैं, उन्हें बचाने में मदद करे। लेकिन रात के वक़्त सिर्फ ट्रेन की धड़-धड़ सुनने को मिलती है।

कुछ देर बाद “अकोला” आया तो मैं चाय पीने उतरा था, “

“सर्दियों की सुबह में गरम चाय का मज़ा ही कुछ और होता है””, अकोला पर चाय वाले ने मुझे चाय थमाते हुए कहा था, और मैं वहीँ प्लेटफार्म पर खड़े होकर चाय की चुस्कियाँ भरने लगा था। ट्रेन ने हॉर्न दिया और धक्का लगकर हिलनी शुरू हुई ही थी, कि एक लड़की तेज़ी से दौड़ते हुए मेरे ही डब्बे में चढ़ गयी थी, और हाँफते हुए दूसरी तरफ वाले दरवाज़े पर खड़ी हो गयी थी। मैं भी फुर्ती में चढ़ा और एक नज़र उस पर डालता हुआ अन्दर निकल गया। सीट पर जाकर बैठा तो आखें दरवाज़े पर ही टिक गईं, मैं उसके अन्दर आने का इंतज़ार कर रहा था।

 

(2)

10 मिनिट बाद वो दिखी लेकिन अन्दर आने की जगह वो बाथरूम के तरफ वाली एक्स्ट्रा सीट पर ही बैठी गयी थी। उसके चेहरे से पता चल रहा था कि थोड़ी सी घबराहट थी उसके दिल में, कि कहीं टीसी ने आकर पकड़ लिया तो। कुछ देर तक तो पीछे पलट-पलट कर टीसी के आने का इंतज़ार करती रही थी। शायद सोच रही थी कि थोड़े बहुत पैसे देकर कुछ निपटारा कर लेगी। देखकर यही लग रहा था कि जनरल डब्बे में चढ़ नहीं पाई इसलिए स्लीपर में आकर बैठी थी, सामान के नाम पर उसकी गोद में रखा एक छोटा सा बेग था।

मैं बहुत देर तक कोशिश करता रहा पीछे से उसे देखने की कि शायद चेहरा सही से दिख पाए लेकिन हर बार असफल ही रहा था। फिर थोड़ी देर बाद वो भी खिड़की पर हाथ टिकाकर सो गयी थी। मैं फिर से उसके जागने के इंतज़ार में दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया था। शायद एक बार देख सकूँ। अजीब ललक सी जाग उठी थी उसे एक झलक पूरा देखने की। लेकिन वो गहरी नींद में सोयी हुई थी, शायद बहुत थकी हुई थी।

थोड़ी देर दरवाज़े पर खड़े रहने के बाद मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि टीसी ने आकर उसे उठाया था।

“टिकेट बेटा”

“अंकल नागपुर तक जाना है, लेकिन टिकेट जनरल का है …. वहां चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें बैठ गयी” उसने डरते हुए अपनी बात कही

“अच्छा 300 रुपये का पेनाल्टी बनेगा” टीसी बोला

“ओह … अंकल मेरे पास तो लेकिन 100 रुपये ही हैं” उसने बोला

“ये तो गलत बात है बेटा …. पेनाल्टी तो भरनी पड़ेगी”

“सॉरी अंकल …. मैं अलगे स्टेशन पर जनरल में चली जाउंगी …. मेरे पास सच में पैसे नहीं हैं …. कुछ परेशानी आ गयी, इसलिए जल्दबाजी में घर से निकल आई … और ज्यदा पैसे रखना भूल गयी…. ” बोलते बोलते रो पढ़ी थी वो

टीसी को शायद उस पर दया आ गयी थी इसलिए 100 रुपये में उसे नागपुर तक उस डब्बे में बैठने की परमिशन देदी थी।

टीसी के जाते ही उसने अपने आँसू पोंछे और इधर-उधर देखा कि कहीं कोई उसकी ओर देखकर हंस तो नहीं रहा था।

थोड़ी देर बाद उसने किसी को फ़ोन लगाया और कहा था कि “उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं बचे हैं … नागपुर स्टेशन पर कोई जुगाड़ कराके उसके लिए पैसे भिजा दे, वरना वो समय पर गाँव नहीं पहुँच पायेगी।”

 

मेरे मन में उथल-पुथल हो रही थी, न जाने क्यूँ उसकी मासूमियत देखकर उसकी तरफ खिंचाव सा महसूस कर रहा था, दिल कर रहा था कि उसे पैसे देदूं और कहूँ कि तुम परेशान मत हो … और रो मत …. लेकिन एक अजनबी के लिए इस तरह की बात सोचना थोडा अजीब था। उसके सूखे हुए होंठ, लम्बी चोटी में से जगह-जगह निकल आये बाल, नम पड़ी आँखें उसकी परेशानी और बदहवासी का सबूत दे रहीं थीं। लग रहा था जैसे ख़ूबसूरत रंगों से भरी तितली के रंग सूखकर उसके पंखों से झरने लगे हों, उसके होंठों का लाल रंग, उसके सुर्ख काले बाल सब में एक फीकापन देख रहा था मैं।

 

बहुत देर तक उसे इस परेशानी में देखने के बाद मैं कुछ उपाय निकालने लगा था जिससे मैं उसकी मदद कर सकूँ और फ़्लर्ट भी ना कहलाऊं। फिर एक पेपर पर नोट लिखा था,

 

“बहुत देर से तुम्हें परेशान होते हुए देख रहा हूँ, जानता हूँ कि एक अजनबी लड़के का इस तरह तुम्हें नोट भेजना अजीब भी होगा और शायद तुम्हारी नज़र में गलत भी, लेकिन तुम्हे इस तरह परेशान देखकर मुझे बैचेनी हो रही है इसलिए यह 500 रुपये दे रहा हूँ , तुम्हे कोई अहसान न लगे इसलिए मेरा एड्रेस भी लिख रहा हूँ ….. जब तुम्हें सही लगे मेरे एड्रेस पर पैसे वापस भेज सकती हो …. वैसे मैं नहीं चाहूँगा कि तुम वापस करो …..

 

अजनबी हमसफ़र ”

 

अपने लिखे एड्रेस में भी मैंने अपना पूरा नाम सत्य पाल शर्मा लिखने की जगह एस पी शर्मा ही लिख दिया था। शायद मैं भी उसे पूरा नाम बताने में हिचकिचा रहा था।

 

 

(3)

काफी देर तक सोचकर, हिम्मत करके एक चाय वाले के हाथों उसे वो नोट भिजवा दिया था मैंने, और चाय वाले को मना किया था कि उसे ना बताये कि वो नोट मैंने उसे भेजा था। वो बात अलग है कि अपनी बात मुझे चाय वाले को भी नोट लिखकर ही समझानी पड़ी थी।

“मैडम ये चाय”” चाय वाले ने उसे एक चाय थमाते हुए कहा था,

“लेकिन मैंने नहीं मांगी”” उसने सख्ती से इनकार किया था

“ले लीजिये मैडम इसके पैसे दिए जा चुके हैं, और साथ में आपके लिए ये भी भेजा है”” चाय वाले ने भी पूरी स्टाइल मारते हुए कहा था, जैसे मेरी जगह वही हीरो था कहानी का, और थमाकर चला गया था,

“अरे… लेकिन सुनो तो …” वो उससे कुछ पूछती समझती तब तक चाय वाला चाय… चाय…. चाय बोलता हुआ, अगले डब्बे में जा चुका था।

 

नोट मिलते ही उसने दो-तीन बार पीछे पलटकर देखा था कि कोई उसकी तरह देखता हुआ नज़र आये तो उसे पता लग जायेगा कि किसने भेजा था। लेकिन मैं तो नोट भेजने के बाद ही मुँह पर चादर डालकर लेट गया था।

 

थोड़ी देर बाद चादर का कोना हटाकर देखा था तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट महसूस की थी। लगा था जैसे कई सालों से इस एक मुस्कराहट का इंतज़ार था, तितली के सारे रंग फिर खिलते से दिखे थे मुझे। उसकी आखों की चमक ने मेरा दिल उसके हाथों में जाकर थमा दिया …. फिर चादर का कोना हटा-हटा कर हर थोड़ी देर में उसे देखकर जैसे सांस ले रहा था मैं। उगते सूरज की खिलती धूप में चमकते उसके बाल, कभी-कभी उड़कर उसे तंग कर रहे थे। वो जब भी नोट भेजने वाले को ढूँढने को पीछे मुडती थी मुझे उसकी बोलती आँखें नज़र आतीं थी। वो भले मुझे ढूँढ नहीं पाई थी, लेकिन मेरे लिए उसकी आँखें शुक्रिया कहने को आतुर थी। उससे छुपने-छुपाने के चक्कर में मुँह पर चादर डाला तो पता ही नहीं चला कब आँख लग गयी थी।

 

जब आँख खुली तो वो वहां नहीं थी … ट्रेन नागपुर स्टेशन पर ही रुकी थी। उसकी सीट खाली देखकर मैं फुर्ती में अपनी सीट से उतरा और उसे ढूँढने भागा था। वो तब तक जा चुकी थी, वापस डब्बे में लौटा तो देखा था उस सीट की गद्दी में एक कागज खुरसा हुआ था।

मैंने इधर-उधर देखकर कागज निकाला, उसने मेरे लिए कुछ लिखा था,

 

Thank You अजनबी हमसफ़र …. आपका ये अहसान मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूलूँगी …. मेरी माँ आज मुझे छोड़कर चली गयी हैं …. घर में मेरे अलावा और कोई नहीं है, आनन – फानन में घर जा रही हूँ। आज आपके इन पैसों से मैं अपनी माँ को शमशान जाने से पहले एक बार देख पाऊँगी …. उनकी बीमारी की वजह से उनकी मौत के बाद उन्हें ज्यादा देर घर में नहीं रखा जा सकता। आजसे मैं आपकी कर्ज़दार हूँ … जल्द ही आपके पैसे लौटा दूँगी। 

 

उस दिन से उसकी उन आँखों और उस मुस्कराहट ने मेरे इंतज़ार को कभी ठंडा नहीं पड़ने दिया …. हर रोज़ पोस्टमैन से पूछता था शायद किसी दिन उसका कोई ख़त आ जाये …. फिर ख़त आया भी … एक महीने बाद ही, साथ में 500 रुपये का नोट अन्दर तीन बार मोड़ कर रखा था  …

 

“you can come in Mr sharma” प्रिंसिपल ने मुझे दरवाज़े पर खड़े देखा तो बोला, मुझे होश आया कि स्टाफ रूम से प्रिंसिपल रूम तक आते-आते मैंने एक बार फिर पूरी कहानी ज़हन में दोहरा ली है !

 

(4)

 

कमरे में पहला कदम रखते ही मेरी नज़र प्रिंसिपल के सामने रखी कुर्सियों पर गयी तो मेरे चेहरे का रंग वैसे ही सूख गया जैसे चूने से पुती दीवार पर पानी की एक बूँद पलक झपकते सूख जाती है, और फिर से सफेदी दिखने लगती है। सुबह से जिससे बच रहा हूँ अब वो बिलकुल मेरे बगल वाली कुर्सी पर बैठी है।

“Miss payal… he is Mr Sharma… हमारे स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को ड्राइंग एंड क्राफ्ट सिखाते हैं”

 

“एंड मिस्टर शर्मा … ये हैं मिस पायल .. जो हमारे स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को गणित पढ़ाएंगी… इन्होने आज ही ज्वाइन किया है”

 

हम दोनों को एक दूसरे के बारे में बताकर प्रिंसिपल सर ने हल्की मुस्कराहट के साथ मुझे देखा और हम्म करते हुए अपनी आँखें मटकाकर मुझे कोई इशारा किया… ओह वो मुझे पायल से हाथ मिलाने को कह रहे हैं…

 

और मैं… मैं अपनी घबराहट… छुपाने के चक्कर में इधर उधर नज़रें बचा रहा हूँ… “वैसे मैं घबरा क्यूँ रहा हूँ.. वो तो मुझे जानती ही नहीं…”  ख़ुद को थोड़ी हिम्मत देकर मैंने पायल से हाथ मिलाया और फिर अपनी भाषा यानि साइन लेंग्वेज में हवा में शब्द और आकृतियाँ बनाते हुए उसे वेलकम टू स्कूल कहा !

 

“मिस्टर शर्मा सुन सकते हैं, सिर्फ बोल नहीं सकते…” उसने भी जब मुझे साइन लेंग्वेज में थैंक्स कहा तो प्रिंसिपल ने टोका

 

“आह… ओके गाइस … you people please carry on.. it’s my time to take a round…” इतना कहकर प्रिंसिपल सर खड़े हो गए और उनके पीछे-पीछे हम भी … फिर फुर्ती में कमरे से बाहर निकलते हुए बोले, “मिस्टर शर्मा… पायल को स्टाफ रूम दिखा दें… मैं फ़िलहाल दूसरी तरफ जा रहा हूँ”

 

मैंने हामी में सर हिलाया और पलटा तो वो बिलकुल मेरे पीछे ही खड़ी थी, पिछले एक साल में मैंने उसे अपने करीब कई बार देखा तो था लेकिन महज़ सपने में, वो हकीक़त में किसी दिन मेरे इतने करीब खड़ी होगी वो भी इस तरह मेरी कलीग बनकर ये मैंने कभी नहीं सोचा था।

 

मैंने हाथ से इशारा करके उसे आगे चलने के लिए कहा और फिर हम स्टाफ रूम की तरफ बढ़ गए। वो मुझे देखकर मुस्कुरा रही है और मैं … मैं अब तक अपनी सारी घबराहट भूलकर उसे उसी तरह चोरी छुपे जी भरकर निहारने में लगा हूँ जिस तरह उस दिन ट्रेन में निहार रहा था, लेकिन उस दिन की पायल में और आज की पायल में बहुत अंतर है।

 

उस दिन की पायल में सिर्फ पाजेब थी घुंघरू नहीं, लेकिन आज की पायल… आज की पायल तो पूरी खनक के साथ बज रही है। गुलाबी रंग की साड़ी से उसने अपने गुलाबी गालों के लिए रंग निकाला या अपने गालों से साड़ी के लिए ये हिसाब मैं लगा ही रहा था कि स्टाफ रूम आ गया।

 

वो अन्दर घुसी और मेरी तरफ देखा, फिर बड़ी ही अदायगी से उसने अपनी भोहों को सिकोड़ा और माथे पर आई लकीरों के साथ आँखों से मुझसे पूछा,

“मेरी सीट कहाँ होगी” ..

मैंने भी “ओह..” में अपने माथे पर हाथ रख और उसे मेरे जस्ट बगल वाले केबिन में बैठने के लिए कहा”

 

मैंने चाहूँ तो उसे उसी लाइन का आखिरी खाली केबिन भी बता सकता हूँ, लेकिन मैं ऐसा चाहता भी कैसे… वो मेरे जितने करीब रहेगी मैं उसे उतना ही जी भर कर देख सकूँगा.. और ज़रुरत पड़ने पर हमारे केबिनों के बीच में लगे कांच को ही नॉक करके उसे इशारे से अपनी बातें भी कह दूँगा। मैं खड़ा-खड़ा अभी सोच ही रहा था कि उसने कहा – “थैंक यू मिस्टर शर्मा… मेरी अभी क्लास है.. मैं आपसे लंच में मिलती हूँ”

 

इतना कहकर वो स्टाफ रूम से बाहर चली गयी और मैं एक बार फिर स्टाफ रूम की खिड़की पर खड़ा होकर अपनी उलझन में खड़ा हो गया कि उसे बताऊँ कैसे…

 

(5)

 

मैंने एक बार फिर ख़त अपनी जेब से निकाला और एक बार फिर उसे पढ़ा। उसके साथ होने पर जो घबराहट मेरा साथ छोड़ गयी थी वो उसके जाते ही एक बार फिर मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी है…

 

“वो पूरी है और मैं पूरा क्या अधूरा भी नहीं बोल पाता… मैं कैसे उससे अपने इस अधूरेपन के साथ कहूँ कि वो मुझे बेहद भा गयी है… वो मेरी पहली नज़र का प्यार है जिसे मैं हर रोज़ हर नज़र में देखना चाहता हूँ.. उसकी मासूमियत… उसके भोलेपन ने कई बार मेरे दिल में उमड़े ख़यालों को शब्द बनाकर मेरे मुँह तक फेंका है… और मैंने भी अपने गले की नसों को पूरी ताकत के साथ खींचकर उन शब्दों को बाहर निकालने की कोशिश की है ये जानते हुए भी कि मैं जन्मजात गूंगा हूँ… मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ बोल नहीं पाऊंगा और न ही उसे कभी बता पाऊंगा कि मैं ही हूँ वो अजनबी हमसफ़र….”

 

“अरे… अरे लाइन में … लाइन में”” वो बच्चों को क्लास से बाहर ग्राउंड में ले आई है। दिसंबर की ठिठुरती सर्दी में धूप से बेहतर जगह और क्या हो सकती है पढ़ने के लिए। एक एक करके सारे बच्चों को उसने अपने चारों तरफ गोला बनाकर बैठा लिया है… हरी घास पर ऊपर से नीचे तक गुलाबी रंग में लिपटी वो नर्म हरी मखमल पर खिले एक नन्हे गुलाबी फूल सी दिख रही है।

 

“अच्छा बच्चों …. अब हम सीखेंगे जोड़ना” साइन लेंग्वेज में अपने हाथों से जोड़ने का साइन बनाते हुए उसने अपने होंठ भी हिलाए.. क्लास एक के बच्चों को जोड़ना सिखा रही है वो…

 

“कितनी प्यारी है वो… पहले ही दिन .. पहली ही क्लास में बच्चों के साथ ऐसे घुली हुई है जैसे गिलास भर पानी में चीने के दाने डालते ही घुलने लगते हैं और अपनी मिठास पूरे गिलास में भर देते हैं… उसने भी पहली क्लास में ही हर बच्चे के गालों को ख़ुशी से भरकर फुला दिया है”

अपनी उँगलियों से, कभी दो बच्चों को खड़ा करके… कभी कुछ पेंसिलों को मिलाकर उसने पैंतालीस मिनिट की क्लास में बच्चों को “दो और दो चार”, “तीन और चार सात”, “चार और चार आठ” जैसे कई अंकों को जोड़ना सिखा दिया है।

काश मैं भी उसकी कक्षा में एक बच्चा होता और उससे कहता कि मुझे भी सिखा दे मन की बिखरी उलझनों को जोड़ना… मुझे भी सिखादे कि मैं अपनी हिम्मत को कैसे जोडून। मेरे लिए इस हिम्मत को जोड़ना बेहद ज़रूरी है, वरना मैं उसके सामने होते हुए सहज नहीं रह पाऊंगा…. एक साल से जब वो मेरे सामने भी नहीं थी तब मेरे मन से एक दिन भी ये ख़याल नही गया कि मैं उससे बात करने का जरिया न खोजूं तो अब.. अब मैं सामने होते हुए भी कैसे उसे अनदेखा कर दूँ… नहीं मुझे कुछ तो करना होगा…

 

अपनी टेबल पर बैठते हुए मैंने एक हाफ डे लीव की अर्जी लिखी जिसमें मैंने बीमारी का झूठा बहाना बना दिया है, और घंटी बजाकर हरी सिंह को बुलाया। फिर उसके हाथों में लीव एप्लीकेशन थमाते हुए उसे साइन लेंग्वेज में समझा दिया कि मेरी तबियत बहुत ख़राब है मैं तुरंत घर निकल रहा हूँ।

 

(6)

“बहुत ज्यादा परेशानी के वक़्त मुझे नींद ही एक सबसे आसान तरीका नज़र आता है उस परेशानी से निकलने का… मेरी बहिन छोटी थी तो कहती थी कि गणित का कोई सवाल हल करते-करते जब वो परेशान हो जाती है तो सो जाती है.. और सपने में उसे उस सवाल का हल मिल जाता है… मेरे साथ आजतक तो ऐसा हुआ नहीं.. शायद आ हो जाय… मैं सोकर उठूँ और मुझे उसे सच कैसे बताऊँ इस सवाल का हल मिल जाए, और फिर इस वक़्त मैं उसके सामने भी नहीं रहना चाहता था।” स्कूल से आकर अपने बिस्तर पे लेटा पंखे को घुमते हुए देख रहा हूँ मैं, चाह रहा हूँ कि नींद आ जाये लेकिन जब जो चाहो तब वो मिलता नहीं… आज नींद भी आँखों से ऐसे गुम है जैसे मैंने उसे पिछली रात डांटडपट कर भगाया हो और वो कह रही हो कि “बेटा अब मिन्नतें करोगे तब भी नहीं आउंगी”

सामने दीवार पर टंगी घड़ी की सुइयां गिनता मैं एक से दो… दो से तीन बजता देख रहा हूँ… लेकिन तीन से चार बजते उससे पहले ही बहुत मिन्नतों के बाद नींद आ ही गयी।

डोर बेल बजी तो नींद खुली… घड़ी साढ़े चार बजा रही है.. एक बार मन टटोला लेकिन उलझन का उपाय नहीं मिला था, इसलिए डोर बेल बजाने वाले पर बहुत गुस्सा आया, थोड़ा देर और सो लेने देता तो शायद कुछ उपाय सपने में आ जाता… मन मसोसते हुए मैंने दरवाज़ा खोला तो, पलकें जो अभी तक नींद से भारी होकर गिरी पड़ रही थीं तन कर सीधी खड़ी हो गईं…

जिस उपाय को मैं सपने में ढूँढ रहा था वो मेरे सामने खड़ा है… आई मीन खड़ी है…. वो .. पायल है… । मैंने अपना हाथ पीछे लेजाकर चुप-छाप ख़ुद को चिकोटी काटी यकीन दिलाने के लिए कि वो पायल ही है और मैं सपना नहीं देख रहा हूँ…

“अन्दर आने को नहीं कहेंगे” उसने अपना हाथ मेरी आँखों के सामने हिलाते हुए कहा…

“ओह सॉरी… प्लीज वेलकम..” मैंने साइन लेंग्वेज में उसका स्वागत किया और अन्दर आने को कहा…

“वो अन्दर आई और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरे पूरे घर का पलभर में मुआयना किया”

“वो मेरा घर देख रही है और मैं उसे, उसने अब भी वही गुलाबी साड़ी पहनी है, शायद स्कूल से सीधा यहीं आई है… लेकिन वो आई क्यूँ है…” ये सवाल मन में आते ही वो घबराहट फिर मुझसे चिपक गयी…

अपने माथे की सलवटें छुपाते हुए मैंने उसे बैठने को कहा और ख़ुद भी उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया… वो मुझे देख रही है और मैं नज़रें चुरा रहा हूँ… लग रहा है जैसे वो लड़का है और मैं लड़की… उसके हिस्से का शर्माना, घबराना, डरना, सब मैं ही जी रहा हूँ…

“आज मुझे समझ आया कि मेरा ख़त मिलने के बाद भी मुझे फ़ोन क्यूँ नहीं आया था” उसने वो ख़त मेरे आगे बढ़ाते हुए कहा”

“ओह नो… ये ख़त मैं आज अपने केबिन में टेबल पर भी भूल आया था…””

“आपको मुझसे बचने या भागने की ज़रुरत नहीं है… मैं आपकी कर्ज़दार दूँ … सिर्फ पैसे चुकाने से क़र्ज़ नहीं उतरते”…”, वो बोले जा रही है और मैं उसे देखे जा रहा हूँ… ““मैं उस दिन अपनी माँ को आखिरी झलक सिर्फ आपकी वजह से देख पाई… और उसका अहसान मैं ज़िन्दगी भर नहीं उतार सकती…. लेकिन हाँ अगर आपको मंज़ूर हो तो आपकी दोस्त बनकर ख़ुद को आपके जैसा अच्छा इंसान ज़रूर बनाना चाहती हूँ…””

“दोस्त… मोहब्बत की शुरुआत अक्सर दोस्ती से ही तो होती है…” अपने मन में इस ख़याल के आते ही मैंने मुस्कुराकर उसकी तरफ हाथ बढ़ा दिया….”

Tags: Ankita Jain, अंकिता जैन, अजनबी हमसफ़र
Ankita Jain
Previous post “आख़िरी गिफ्ट” Next post प्रायश्चित

Related Articles

कभी तो तुम भी कहो ना

February 7, 2017Ankita Jain

बाबा के घी, तेल और घासलेट

February 3, 2017Ankita Jain

इन्टरनेट और मोबाइल का युग

February 3, 2017Ankita Jain

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

  • सजने-सँवरने में फिसड्डी
  • नए शहर में रूम हंटिंग
  • कोई लड़का है जो उसके पीछे पड़ा है, उसे घूरता है
  • मनुष्य अपनी समाप्ति की ओर
  • Corona And Immunity

Categories

  • Articles
  • Poems
  • Stories
  • Uncategorized

Tags

Ankita Ankita Jain branding business city coding corona Desi design Elephant environment eve teasing forest gallery girls Health image immunity issues Jain Life Love Love Engineering Memory music nature new photography Poem post format safety security social tiger video wordpress अंकित जैन अंकिता जैन अजनबी हमसफ़र आख़िरी 35 मिनिट आख़िरी गिफ्ट एक मुलाक़ात काव्य निर्मोही डायरी प्रायश्चित. Ankita Jain
HomeAbout MeBooksContact
© 2017 Ankita Jain (ankitajain.in) Designed by Dekho Bhopal Media & Communications